Monday, February 06, 2006

वो घडियां......

कैसी थी वो घडियां, कैसा था वो आलम ।
बेज़ार थे वो हमसे, ख़फा था सारा आलम ।।

कल इन्ही होठों ने हंसी दी थी , आज वही चुप थे ।
बेज़ुबान थी मेरी आवाज़, बे-हर्फ मेरी क़लम ।।

उन आंखों की एक एक बूंद, नश्तर की मानिन्द उतरी दिल में ।
नहीं कह सकते खुद को बेकसूर, यही था ग़म ।।

खिलखिला रहे थे यही रास्ते कल, साथ मेरे ।
सोज़ में डूबी है आज हर गली, साथ में मेरा सनम ।।

कुछ नहीं था मेरे पास कहने को, अलावा मुआफ़ी के ।
शायद बदल पाएं खुद को, वक्त के साथ हम ।।

कैसी थी वो रुख्सती, कैसी खा़मोशी ।
हज़ार बार मरे हम, हज़ारों बार लिया जनम ।।