Thursday, November 09, 2006

मुकम्मल जहां.......

क्यूं नहीं मिलता सबको मुकम्मल जहां....
खडी है रस्मों की दीवार जहां - तहां ||

फिर वही किस्सा , वही कहानी गुज्ञर रही है....
मेरी आंखों के आगे ही, मेरी तारीख बन रही है ||

टूटते सपनों में देख रहा हूं, उसका बिछुडता हाथ.....
सिसकियां मेरे माज्ञी की, गमज्ञदा आहट आ रही हैं ||

ज्ञिन्दगी तो फिर भी बसर होगी तेरे बिन....
पर दिल में जो खला होगी, दिखाई दे रही है ||

जाने कब हम आज्ञाद होंगे इन बन्दिशों से,
कब मिलेगा सबको मुकम्मल ज्ञमीन-ओ-आसमां,
पर सब कहना बेमानी है, सदा मेरी टकरा के लौट रही है ||

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