तनहाई....
बैठा हूं अपने साथी के संग, रोज की तरह मैं,
कोई नहीं, मेरी तनहाई और मैं हूं |
बैठा हूं अपने साथी के संग, रोज्ञ की तरह मैं,
कोई और नहीं, मेरी तनहाई और मैं हूं ||
होती है यारों की महफिल, खूब शोर-ओ-गुल हर शाम,
नहीं करता आंखें नम, ना हो जाए वो बदनाम ||
तसव्वुर नाकाम होता है हर शाम को,
अगली शब के लिए मनाता हूं अपने आप को ||
शुक्र है मेरे पास ये धुंए का गुबार है,
गर्क कर देता हूं इसमें, अपनी सारी हसरतों को मैं ||
लेकिन ज्ञिन्दगी का एक पहलू ये भी तो है,
नई बहार के लिए, पुराने गुलों को जाना है |
वक्त को खुदा ने बनाया ही ऐसा, उसे तो बदलना ही है,
बस इनसान को साथ बदलने की कुव्वत देना भूल जाता है ||
2 Comments:
hmmm
nice poem
your creation?
Thanks.
Yes....its mine
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