मुद्दत हुई...(Mirza Ghalib)
मुद्दत हुई है यार को महमां किए हुए ।
जोश-ए-कदां से बज़्म चरागां किए हुए ।।
इक नाबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह ।
चेहरा फ़रोग़-ए-मय से गुलिस्तां किए हुए ।।
जी ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन ।
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किए हुए ।।
गा़लिब हमें न छेड के फिर जोश-ए-अश्क़ से ।
बैठे हैं हम तहय्यर-ए-तूफां किए हुए ।।
एकाकी मन के विचार..(my own)
इच्छा है कुछ बतलाऊं तुम्हें, आरम्भ ही जो केवल मिल जाता ।
धूमिल से मेरे विचारों को, शब्दों का साथ जो मिल जाए ।।
स्वतः-स्फ़ूर्त सी वृत्ति तुम्हारी, चन्चल मन और व्याकुल उर ।
यदा-कदा ही जो आती है, उस स्थिरता को जीवन मिल जाए ।।
हर्ष-विकम्पित अधरों में, लज्जा से गिरती पलकों मे ।
ह्रिदय का तुम्हारे आलिंगन करती, कभी स्मृति जो मेरी आ जाए ।।
तुमने भी शायद सोचा हो कभी , क्यूं मैं आकर्षित होता हूं ।
स्वभाव में विपरीत हो बिल्कुल , फ़िर भी मैं हर्षित होता हूं ।
आकर्षण का ये तर्क तुमें , स्वयमेव ही समझ में आ जाए ।।
क्यूं रहता हूं मैं निःशब्द सा , बंधा बंधा सा रुका रुका सा ।
कैसा ये चिर् मौन है, उर में अकुलाहट कण्ठ रुधिर सा ।
नेत्र जो सदा ही कहते हैं , किञ्चित रसना कह जाए ।।
कौन आएगा यहां...(Kaif)
कौन आएगा यहां, कोइ न आया होगा ।
मेरा दरवाजा़ हवाओं ने हिलाया होगा ।।
दिल-ए-नादान ना धडक, ए दिल-ए-नादान ना धडक ।
कोइ ख़त लेके पडोसी के घर आया होगा ।।
ग़ुल से लिपटी हुई तितली को गिराकर देखो ।
आंधियो तुमने दरख्तों को गिराया होगा ।।
कै़फ परदेस में मत याद करो अपना मकां ।
अबकी बारिशों ने उसे तोड गिराया होगा ।।